हर कोई कपट का फंदा, बनाने पे लगा है हर कोई औक़ात अपनी, जताने पे लगा है परिंदों को तो शौक है बस आसमां छूने का, मगर आदमी है कि गिरने, गिराने पे लगा है न बची है किसी में खुल के जीने की तमन्ना, चूंकि अपनों को अपना ही, दबाने पे लगा है न भाता है आदमी को मोहब्बत का तराना, वो तो नफरतों का शोरगुल, जुटाने पे लगा है एक पल का पता नहीं ज़िन्दगी का फिर भी, वो तो सौ बरस का सामां, जुटाने पे लगा है जला था आशियाँ तो न की कोई भी तदबीर, अब तो हर कोई उसकी ख़ाक, उठाने पे लगा है ज़रा चैन से जीलूँ इतनी सी ख़्वाहिश है 'आदि', मगर गुज़रा हर फ़साना मुझे, सताने पे लगा है