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भरी सभा में सुधारों की, बात करते हैं।

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की नज़र नहीं है, नज़ारों की बात करते हैं। ज़मीन पर चाँद-सितारों की, बात करते हैं। वो हाथ जोड़कर, बस्ती को लुटने वाले। भरी सभा में सुधारों की, बात करते हैं

नये समय की नयी चुनौती

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नये समय की नयी चुनौती प्रश्न पुराने, यक्ष ! बदल दो ! वर्तमान पर चर्चा करती एक सभा है अंधी बहरी कोई कहता नहीं लोक से अब इसका अध्यक्ष बदल दो ! राजाओं के सम्मोहन में कब तक बैठोगे पैताने थोड़ी हिम्मत करो नशे से - जागो ,अपना पक्ष बदल दो ! सबको आया नहीं कभी भी हर युग में प्रासंगिक रहना यदि वे अपने तीर बदल दें तुम भी अपने वक्ष बदल दो ! जहाँ जहाँ भी पड़ें सुनायी तुमको गुप्तचरी पदचापें बिना बताये उन महलों को अपने अपने कक्ष बदल दो !

न था कोई कुसूर मगर, गुनहगार हो गए।

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यारों हम तो साजिशों के, शिकार हो गए, न था कोई कुसूर मगर, गुनहगार हो गए। कर दी फ़ना हमने तो सारी हसरतें अपनी, फिर भी अपनों की नज़र में, बेकार हो गए। अब तो बनते हैं रिश्ते हैसियत के हिसाब से, इधर तो सब के सब दौलत के, यार हो गए। यारो न भाती किसी को भी नेकियां अब तो, अब तो छल कपट के सारे, सरदार हो गए। खुश हैं हम तो यारा सह के आफ़तों का दौर, इसमें कितने न जाने चेहरे, नमूदार हो गए। खुशामद न करिये 'आदि' इन बड़े लोगों की, वो तो गवा के ज़मीर अपना, खुद्दार हो गए।

मिटने वाला मैं नाम नहीं…

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 मैं उस माटी का वृक्ष नहीं, जिसको नदियों ने सींचा है। बंजर माटी में पलकर मैंने… मृत्यु से जीवन खींचा हैं । मैं पत्थर पर लिखी इबारत हूँ, शीशे से कब तक तोड़ोगे।२ मिटने वाला मैं नाम नहीं… तुम मुझको कब तक रोकोगे… तुम मुझको कब तक रोकोगे…।।

वो तो नफरतों का शोरगुल, जुटाने पे लगा है

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 हर कोई कपट का फंदा, बनाने पे लगा है हर कोई औक़ात अपनी, जताने पे लगा है  परिंदों को तो शौक है बस आसमां छूने का,  मगर आदमी है कि गिरने, गिराने पे लगा है  न बची है किसी में खुल के जीने की तमन्ना,  चूंकि अपनों को अपना ही, दबाने पे लगा है  न भाता है आदमी को मोहब्बत का तराना,  वो तो नफरतों का शोरगुल, जुटाने पे लगा है  एक पल का पता नहीं ज़िन्दगी का फिर भी,  वो तो सौ बरस का सामां, जुटाने पे लगा है  जला था आशियाँ तो न की कोई भी तदबीर,  अब तो हर कोई उसकी ख़ाक, उठाने पे लगा है  ज़रा चैन से जीलूँ इतनी सी ख़्वाहिश है 'आदि',  मगर गुज़रा हर फ़साना मुझे, सताने पे लगा है

ना थकें कभी पैर

 ना थकें कभी पैर ना हिम्मत हारी है, हौंसला हैं ज़िन्दगी में कुछ कर दिखाने का, इसलिए अभी भी सफ़र जारी हैं।

जिधर देखूं स्वार्थपरायण संचार था।

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देखा मैंने चुनावी चक्रपात, जरुरत में होते कौन निसोत, कौन निकृष्ट सुधर रहें, बड़ी-बड़ी गाड़ी से उतर रहें।                उम्मीद किस पर विषाद, धन के होते प्रतियुद्ध, कह दो प्रपंचकारी से, अलसी कपटी हड़ताली से। संघर्ष में लथ-पथ अनपराध, पराधीन आदि समझो विमुग्ध, छल-प्रपंच सबको प्रश्रय गया है, कह दो सत्य घर में हार गया है। सर्वत्र विमुख तनाव पूर्ण में, देखा विलक्षण संसार असार में मुखड़ा पर निष्ठुरता प्रलोभ था, जिधर देखूं स्वार्थपरायण संचार था।